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नई दिल्ली डेस्क: जस्टिस बी. वी. नागरत्ना और जस्टिस के. वी. विश्वनाथन की पीठ ने बताया कि यह प्राथमिकी उस समय दर्ज की गई थी, जब राज्य में लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए आदर्श आचार संहिता लागू थी। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अभिनेता और शिक्षाविद् मांचू मोहन बाबू और उनके बेटे मांचू विष्णु वर्धन बाबू की अपीलों पर आया है। उन्होंने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें उनके खिलाफ आपराधिक कार्यवाही रद्द करने से इनकार कर दिया गया था।
पीठ ने कहा कि प्राथमिकी और आरोपपत्र में ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है, जिससे यह साबित हो सके कि चुनावों पर किसी तरह का गलत प्रभाव डाला गया या स्वतंत्र मतदान प्रक्रिया में कोई दखल दिया गया। शीर्ष कोर्ट ने कहा, अगर राज्य के पक्ष को पूरी तरह मान भी लिया जाए, तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि याचिकाकर्ताओं ने धरना या रैली के दौरान किसी अपराध को अंजाम दिया या सड़कों पर ऐसी बाधा पैदा की, जिससे आरोप सही साबित हों।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता सिर्फ अपने अभिव्यक्ति की आजादी और शांतिपूर्वक तरीके से एकत्र होने के अधिकार का प्रयोग कर रहे थे। ऐसे में उनके खिलाफ मुकदमा चलाने का कोई औचित्य नहीं है। कोर्ट ने यह भी कहा कि प्राथमिकी और आरोपपत्र में ऐसा कुछ नहीं है जिससे यह लगे कि उन्होंने ऐसा कोई गैरकानूनी कार्य किया जिससे सार्वजनिक रूप से किसी को नुकसान, खतरा, असुविधा या अधिकारों में बाधा पहुंची हो। मांचू मोहन बाबू श्री विद्यानीकेतन के शिक्षण संस्थानों के अध्यक्ष हैं और मांचू विष्णु वर्धन बाबू उनके बेटे हैं। कोर्ट ने बताया कि राज्य में आम चुनाव और विधानसभा चुनाव 11 अप्रैल 2019 को तय थे और 10 मार्च से ही आदर्श आचार संहिता लागू हो गई थी। इस दौरान बिना अनुमति के किसी भी सार्वजनिक सभा, धरने, रैली या रोड शो पर प्रतिबंध था।
राज्य सरकार के अनुसार, 22 मार्च 2019 को याचिकाकर्ताओं ने कुछ स्टाफ और छात्रों के साथ तिरुपति-मदनपल्ली सड़क पर एक रैली निकाली और उस समय की आंध्र प्रदेश सरकार के खिलाफ नारे लगाए। आरोप यह था कि सरकार छात्रों की फीस की प्रतिपूर्ति (नुकसान की भरपाई) नहीं कर रही थी। यह भी कहा गया कि इससे यातायात बाधित हुआ, लोगों को असुविधा हुई और यात्रियों की सुरक्षा को खतरा पहुंचा। इस घटना को लेकर प्राथमिकी दर्ज की गई थी और आरोपपत्र दाखिल किया गया था। इसके खिलाफ याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट में अपील की, लेकिन जनवरी में उनकी याचिका खारिज कर दी गई। इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अपील स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया और कहा कि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ लगाए गए किसी भी आरोप की पुष्टि नहीं होती।